एक्स रिपोर्टर न्यूज के लिए खैरागढ़ से नितिन कुमार भांडेकर की खास रिपोर्ट:-
खैरागढ़। कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी के उस पत्र के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि रिक्त हुए इस विधानसभा के लिए स्व देवव्रत सिंह के परिवार से प्रत्याशी कांग्रेस से नहीं होंगे। परन्तु अब सवाल यह उठता है कि गत चुनाव में भाजपा के सत्ता में रहते त्रिकोणीय मुकाबले में अपने नेता को कठिन हालातों से जीताकर लाने वाले वे रणनीतिकार आख़िरकार इस बार किसके साथ है या होगे? इसके साथ ऐसे दर्जन भर सवाल है, जिसकी देखी अनदेखी इस उपचुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकती है।
वनांचल में सिर्फ देवव्रत, कोई पार्टी नहीं
देश में प्रारंभ हुए आम चुनाव के साथ ही साथ इस विधानसभा सहित आने वाले वनांचल को खैरागढ राजपरिवार के लिए सबसे सुरक्षित माना जाता है। जहां से उनके रणनीतिकारों ने विषम हालातों में भी इस बार भी उस इलाके से गारंटी के साथ जिताकर लाए थे। परन्तु इस बार हालात बदल चुके हैं तो ऐसे में जब आज वे कांग्रेस में भी नही है तो अब क्या होगा?
30 हजार वोटों से कैसे पार होगी नैया
यदि गत चुनाव का अध्यन करें तो पता चलता है कि तब कांग्रेस को मात्र 31 हजार मतों से संतोष करना पडा था। जबकि कांग्रेस प्रत्याशी वर्तमान विधायक भी थे। उन सबके बावजूद भी स्व देवव्रत सिंह ने लाए 61 हजार मत प्राप्त कर इस सीट पर कब्जा जमाया था। जबकि दूसरे स्थान पर पहुंची भाजपा लगभग साठ हजार मत प्राप्त करने में सफलता पाई थी। ऐसे में अबकी बार कांग्रेस को जीत के लिए कम से कम अस्सी से नब्बे हजार मतों की आवश्यकता होगी।
दो लाख से अधिक मतदाता
जानकारी के मुताबिक इस विधानसभा क्षेत्र में लगभग दो लाख से अधिक मतदाता है और यदि 80 प्रतिशत मतदान होता है तो भी जीतने के लिए लगभग 80 से 90 हजार मतों की जरूरत होगी ही। उसे पाने के लिए कांग्रेस को बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, जिसके लिए अब समय बहुत ही कम है।
स्व. देवव्रत का वोट रणनीतिकारों के बिना किसी का नहीं
यह बात आम चर्चा का विषय है कि बिना देवव्रत सिंह के उनके सिपहसालारों का साथ किसको मिलेगा? क्योंकि उनमें से आज भी अनेकों का कांग्रेस पार्टी में प्रवेश नहीं हुआ है। यद्यपि कानूनी उलझनों के कारण श्री सिंह व साथियो का कांग्रेस प्रवेश नहीं हो सका था परन्तु उनका साथ कांग्रेस के साथ ही रहा, विधायक निर्वाचित होने के उपरांत वे सदैव कांग्रेस के साथ ही रहे साथ ही राज्य सरकार को प्रेषित विकासपरक प्रस्ताव पर भी शासन द्वारा मुहर लगते रहा है, जो उनके कार्यप्रणाली को स्पष्ट करता है। स्व. देवव्रत सिंह ने लोकसभा में खुलकर भोलाराम साहू के लिए वोट मांगा था। उसके बाद हुए नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशियों के घर-घर जाकर प्रचार किए और तो और उनके ही नेतृत्व में कांग्रेस की नैया पार लगी थी। जिसकी चर्चा जनमानस में आज भी जीवित है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
एक मंच पर लाना कठिन पर जीत की गारंटी
विश्लेषकों की माने तो स्व. राजा देवव्रत सिंह के उन ईमानदार साथियों सहित जमीनी कार्यकर्ताओं एवं जनप्रतिनिधियों को एक मंच पर लाना शायद एक कठिन राह हो सकती है। परन्तु असंभव नहीं है। मगर एक बात साफ है कि उनका साथ होना कांग्रेस की नैया पार लगाने की उम्मीद जरूर जगाती है।
वनांचल के 39 में से 36 बूथ जीतने का रिकार्ड
याद हो कि इस विधानसभा क्षेत्र में जीत हार के फैसले में वनांचल स्थित मतदान केंद्रों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गत चुनाव में भी यहां के लगभग 39 बूथो में से 36 में स्व देवव्रत सिंह को भारी भरकम बढ़त मिली थी और यहीं से उनका विजयरथ रवाना हुआ था। जो कि विजयी तिलक लगाकर ही लौटा। जिसके लिए कांग्रेस को आज भी रणनीति की जरुरत होगी। ज्ञात हो कि अकेले वनांचल ने स्व. राजा देवव्रत सिंह को लगभग 4750 वोटों से बढ़त दिलाकर विधानसभा पहुंचने का रास्ता साफ कर दिया था। जो स्व. राजा देवव्रत सिंह के प्रति अपनी कृतज्ञता दिखाने के लिए काफी था।
मसलन स्व. देवव्रत सिंह के निधन के बाद रिक्त हुए खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र में होने वाला उपचुनाव किसी भी के लिए परोसी हुई खीर साबित नहीं होने वाली है। हां यदि राजनीतिक पार्टियां अपने भूले बिसरे छिटके साथियों को लेकर एक विजयी रणनीति के साथ चलती है तो जीत जरुर मिल सकती है।
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